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अयोध्या का इतिहासलाला सीताराम द्वारा रचित नगर इतिहास की पुस्तक है जिसका प्रकाशन १९३२ ई॰ में इलाहाबाद के हिंदुस्तानी अकादमी द्वारा किया गया था।
"इस देश का प्राचीन नाम उत्तरकोशला है, जिसकी राजधानी अयोध्या थी। यों तो चन्द्रवंश का प्रादुर्भाव प्रयाग के दक्षिण प्रतिष्ठानपुर में हुआ; परन्तु जैसे मनु पृथ्वी के प्रथम राजा (महीभतामायः) कहे जाते हैं वैसे ही उत्तरकोशला की राजधानी अयोध्या भी सबसे पहिली पुरी है। इसी उत्तरकोशला में विष्णु भगवान के मुख्य अवतार राम, कृष्ण और बुद्ध अयोध्या, मथुरा और कपिलवस्तु में हुए। तीर्थराज प्रयाग, मुक्तिदायिनी विश्वनाथपुरी काशी इसी कोशला में हैं। वेदों में जिन पांचालों का नाम बार बार आया है वे इसी कोशला के रहनेवाले थे। इसी कोशला में अयोध्या के राजा भगीरथ कठिन परिश्रम से गंगा को ले आये। यहीं से निकलकर क्षत्रियों ने तिब्बत, श्याम और जापान में साम्राज्य स्थापित किये। जैन लोग २४ तीर्थंकर मानते हैं। उनमें से २२ इक्ष्वाकुवंशी थे। यों तो ५ ही तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या में बताई जाती है, परन्तु जैनियों की धारणा यह है कि सारे तीर्थकरों को अयोध्या ही में जन्म लेना चाहिये।..."(पूरा पढ़ें)
हिन्द स्वराज, महात्मा गाँधी की पहली पुस्तक है जिसमें उन्होंने अपने विचारों को सुव्यवस्थित रूप दिया है। दक्षिण अफ्रीकाके भारतीय लोगोंके अधिकारोंकी रक्षाके लिए सतत लड़ते हुए गांधीजी १९०९ में लंदन गये थे। वहां कई क्रांतिकारी स्वराज्यप्रेमी भारतीय नवयुवक उन्हें मिले। उनसे गांधीजीकी जो बातचीत हुई उसीका सार गांधीजीने एक काल्पनिक संवादमें ग्रथित किया है। इस संवादमें गांधीजीके उस समयके महत्त्वके सब विचार आ जाते हैं। किताबके बारेमें गांधीजी ने स्वयं कहा है कि "मेरी यह छोटीसी किताब इतनी निर्दोष है कि बच्चोंके हाथमें भी यह दी जा सकती है। यह किताब द्वेषधर्मकी जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसाकी जगह आत्म-बलिदानको स्थापित करती है; और पशुबलके खिलाफ टक्कर लेनेके लिए आत्मबलको खड़ा करती है।" (हिन्द स्वराज पूरा पढ़ें)
कामायनीजयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य है। १९३६ ई. में पहली बार प्रकाशित इस कृति को १९९२ ई. में मयूर पेपरबैक्स द्वारा प्रकाशित किया गया था।
"आर्य साहित्य में मानवों के आदिपुरुष मनु का इतिहास वेदों से लेकर पुराण और इतिहासों में बिखरा हुआ मिलता है। श्रद्धा और मनु के सहयोग से मानवता के विकास की कथा को, रूपक के आवरण में, चाहे पिछले काल में मान लेने का वैसा ही प्रयत्न हुआ हो जैसाकि सभी वैदिक इतिहास के साथ निरुक्त के द्वारा किया गया, किंतु मन्वंतर के अर्थात् मानवता के नवयुग के प्रवर्त्तक के रूप में मनु की कथा आर्यों की अनुश्रुति में दृढ़ता से मानी गयी है। इसलिए वैवस्वत मनु को ऐतिहासिक पुरुष ही मानना उचित है। प्रायः लोग गाथा और इतिहास में मिथ्या और सत्य का व्यवधान मानते हैं। किंतु सत्य मिथ्या से अधिक विचित्र होता है। आदिम युग के मनुष्यों के प्रत्येक दल ने ज्ञानोन्मेष के अरुणोदय में जो भावपूर्ण इतिवृत्त संगृहीत किये थे, उन्हें आज गाथा या पौराणिक उपाख्यान कहकर अलग कर दिया जाता है, क्योंकि उन चरित्रों के साथ भावनाओं का भी बीच-बीच में संबंध लगा हुआ-सा दीखता है। घटनाएं कहीं कहीं अतिरंजित-सी भी जान पड़ती हैं। तथ्य-संग्रह-कारिणी तर्कबुद्धि को ऐसी घटनाओं में रूपक का आरोप कर लेने की सुविधा हो जाती है। किंतु उनमें भी कुछ सत्यांश घटना से संबद्ध है, ऐसा तो मानना ही पड़ेगा।..."(पूरा पढ़ें)
मोहनदास करमचन्द गाँधी (2 अक्टूबर 1869 — 30 जनवरी 1948) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत, दार्शनिक, लेखक एवं पत्रकार। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ:
हिन्द स्वराज (1907), गाँधी-दर्शन की पहली सैद्धांतिक पुस्तक
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (11 अक्टूबर 1884 - 2 फरवरी 1941) हिंदी भाषा के आलोचक, निबंधकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ:
"उसमान ने सन् १०२२ हिजरी अर्थात् सन् १६१३ ईसवी में 'चित्रावली' नाम की पुस्तक लिखी। पुस्तक के आरंभ में कवि ने स्तुति के उपरांत पैगंबर और चार खलीफो की, बादशाह (जहाँगीर) की तथा शाह निजामुद्दीन और हाजी बाबा की प्रशंसा लिखी है। ...कवि ने "योगी ढूँढ़न खंड" में काबुल, बदख्शाँ, खुरासान, रूस, साम, मिस्र, इस्तंबोल, गुजरात, सिंहलद्वीप आदि अनेक देशों का उल्लेख किया है। सबसे बिलक्षण बात है जोगियों का अँगरेजो के द्वीप में पहुँचना––
वलंदीप देखा अँगरेजा। तहाँ जाइ जेहि कठिन करेजा।
कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है। जो-जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे है उन विषयो पर उसमान ने भी कुछ कहा है। कहीं कहीं तो शब्द और वाक्यविन्यास भी वही है। पर विशेषता यह है कि कहानी बिलकुल कवि की कल्पित है, जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है––
कथा एक मैं हिए उपाई। कहत मीठ औ सुनत सोहाई॥
कथा का सारांश यह है– नेपाल के राजा धरनीधर पंवार ने पुत्र के लिये कठिन व्रत-पालन करके शिव-पार्वती के प्रसाद से सुजान नामक एक पुत्र प्राप्त किया। सुजानकुमार एक दिन शिकार में मार्ग भूल देव (प्रेत) की एक मढ़ी में जा सोया । देव ने आकर उसकी रक्षा स्वीकार की । एक दिन वह देव अपने एक साथी के साथ रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली की वर्षगाँठ का उत्सव देखने के लिये गया। और अपने साथ सुजान कुमार को भी लेते गया और कोई उपयुक्त स्थान न देख देवों ने कुमार को राजकुमारी की चित्रसारी में ले जाकर रखा और आप उत्सव देखने लगे। कुमार राजकुमारी का चित्र टॅगा देख उस पर आसक्त हो गया और अपना भी एक चित्र बनाकर उसी की बगल में टाँगकर सो रहा। ..."(पूरा पढ़ें)
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